Contents
- 1 होमियोपैथी चिकित्सा
- 2 होमियोपैथी चिकित्सा की खोज किसने की ?
- 3 होमियोपैथी चिकित्सा प्रणाली के मुख्य सिद्धान्त
- 4 होमियोपैथिक दवा का शक्तीकरण (Potentialisation)
- 5 होमियोपैथिक दवाओं का परीक्षण (Proving of Drugs)
- 6 होमियोपैथी दवा के चयन का सिद्धान्त
- 7 होमियोपैथी चिकित्सा-प्रणाली के बारे में कुछ व्यावहारिक जानकारी
- 8 होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति और असाध्य रोग
होमियोपैथी चिकित्सा
आज चिकित्सा विज्ञान में जैसे एलोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी आदि चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं, उसी प्रकार होमियोपैथी भी एक अद्भुत चिकित्सा-प्रणाली के रूप में प्रचलित है। होमियोपैथी की दवा साबूदाने-जैसी मीठी-मीठी गोलियों के नामसे जानी जाती है।
होमियोपैथी चिकित्सा की खोज किसने की ?
होमियोपैथी के प्रणेता डॉ० हैनीमैन (१७५५—१८४३ ई०) थे, जो जर्मनी के निवासी थे। डॉ० हैनीमैन ऐलोपैथी में एम्०डी० उपाधिप्राप्त चिकित्सक थे। उन्होंने दस वर्षों तक एलोपैथी की चिकित्सा के दौरान यह अनुभव किया कि इस पद्धति में रोगको तेज दवाओं से | दबा दिया जाता है, जो आगे चलकर घातक दुष्परिणामों के रूप में उभरता ही रहता है। एक बीमारी हटती है तो दूसरी उठ खड़ी होती है, फिर तीसरी और अन्त में ऐसी जटिल बीमारी हो जाती है कि वह असाध्य रोग की श्रेणी में आ जाती है।
इन घटनाओं से डॉ० हैनीमैन के अन्तर्मन में नफ़रत पैदा होते ही उन्होंने ऐलोपैथीकी चिकित्सा को हमेशा के लिये छोड़ दिया और सन् १७९० ई० से दिन-रात एक करके एक निर्दोष एवं सार्थक चिकित्सा प्रणाली की खोज में अपना पूरा जीवन खपा दिया, अन्त में इन महापुरुष डॉ० हैनीमैन ने पीडित मानवता की सेवा के लिये होमियोपैथी चिकित्सा-विज्ञान-जैसी संजीवनी विद्या खोज ही निकाली।
होमियोपैथी चिकित्सा प्रणाली के मुख्य सिद्धान्त
मानव का जो स्थूल शरीर हमें दीखता है, वह अति सूक्ष्म तत्त्वों से बना है। रोग का प्रारम्भ स्थूल शरीर में नहीं होता, पहले रोग सूक्ष्म शरीर में आता है। यदि सूक्ष्म शरीर (जीवनी शक्ति—वाइटल फोर्स) स्वस्थ है, सबल है, रेजिस्टेन्स पावर (रोगप्रतिरोधक शक्ति) मजबूत है तो रोग का आक्रमण सूक्ष्म शरीर पर नहीं हो सकता और स्थूल शरीर स्वस्थ बना रहता है।
किंतु यदि हमारी जीवनी शक्ति (सूक्ष्म शरीर-आन्तरिक शक्ति) अस्वस्थ है, निर्बल है तो रोग पहले भीतरी शक्ति पर आक्रमण कर उसे और निर्बल कर देता है, फिर स्थूल शरीर पर विभिन्न अङ्गों में रोगों के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। जैसे—सिर-दर्द, पेट-दर्द, सर्दी-जुकाम, खाँसी, कै-दस्त, बुखार इत्यादि। यदि उपचार से इस सूक्ष्म शरीर (जीवनी शक्ति) को रोगमुक्त कर लिया जाता है तो स्थूल शरीर अपने-आप रोगमुक्त हो जाता है। होमियोपैथी की शक्तीकृत दवा सूक्ष्म रूप में ही होती है। अतः सूक्ष्म तत्त्व पर सूक्ष्म तत्त्व का ही स्थायी प्रभाव पड़ता है और रोगी रोगमुक्त हो जाता है।
(२) स्वस्थ शरीर में जो औषधि रोग के जिन लक्षणों को उत्पन्न करती है, यदि रोगी में वैसे ही लक्षण पाये जाते हैं तो वही औषधि होमियोपैथी के शक्तीकृत रूप में (सूक्ष्म रूप में) उन लक्षणों को ठीक कर देगी, बीमारी का नाम चाहे कुछ भी क्यों न हो। इस सिद्धान्त को एक उदाहरण द्वारा नीचे स्पष्ट किया जा रहा है — जैसे स्वस्थ शरीर में संखिया (आर्सेनिक) बेचैनी पैदा करता है, शरीर में जलन उत्पन्न करता है, बार—बार प्यास लगती है, इस तरह के अनेक लक्षण पैदा करता है।
होमियोपैथी के सिद्धान्त के अनुरूप यदि वैसे ही लक्षण किसी रोगी में पाये जाते हैं तो इन लक्षणों को होमियोपैथी की आर्सेनिक नामक शक्तीकृत दवा दूर कर देगी। उपर्युक्त लक्षण चाहे हैजे में हों, सर्दी-जुकाम-बुखार में हों, पेट के अल्सर में हों, सिर-दर्द में हों या कैंसर में हों। बीमारी के नाम से कोई मतलब नहीं बीमारी का नाम चाहे जो हो-रोगी के ये लक्षण आर्सेनिक नाम की होमियोपैथी की दवा से ठीक हो जायँगे और रोगी रोगमुक्त होगा।
(३) होमियोपैथी में रोग का नहीं, रोगी का इलाज होता है। रोगी के लक्षणों को प्रधानता दी जाती है, बीमारी के नाम को नहीं।
(४) होमियोपैथी के उपचार का आधार खासतौर से पुराने-जीर्ण (क्रानिक) तथा असाध्य कहे जानेवाले रोगों के लिये रोगी की केस हिस्ट्री लेते समय उनके लक्षणों की प्राथमिकता का क्रम इस प्रकार रहता है-
- (अ) मानसिक लक्षण।
- (ब) सर्वाङ्गीण लक्षण यानी व्यापक लक्षण, जो पूरे शरीरको पीडा का बोध कराता हो।
- (स) अङ्ग-विशेष के लक्षण।
- (द) कोई असाधारण या विलक्षण लक्षण।
- (इ) रोगी की प्रकृति।
नये रोगियों में अथवा अबोध बच्चों तथा आकस्मिक असामान्य स्थिति में मौजूदा रोगी की स्थिति एवं मौसम के अनुरूप रोगीको तात्कालिक लाभ देने हेतु सामयिक चिकित्सा-व्यवस्था की जाती है, ताकि रोगी को शीघ्र लाभ हो सके।
होमियोपैथिक दवा का शक्तीकरण (Potentialisation)
सभी पैथियों में औषधियाँ मूलतः सब वही होती हैं, भेद केवल इनके निर्माण एवं प्रयोग में होता है। होमियोपैथिक दवा बनाने की विधि बड़ी ही विचित्र है। इस विधि में औषधि के स्थूल रूप को इतने सूक्ष्मतम रूपमें परिवर्तित कर दिया जाता है कि दवा की तीसरी शक्तीकृत दवा में दवा का स्थूल अंश तो क्या, दवा के सूक्ष्म अंश का भी पता नहीं चलता। होमियोपैथी की किसी भी शक्तीकृत दवा में ६ शक्ति के बाद दवा के अणु-परमाणु भी नहीं देखे जा सकते, दवा की आन्तरिक अदृश्य शक्ति जाग्रत् हो जाती है और इस तरह दवा की आन्तरिक जीवनी शक्ति रोगी को ठीक करती है।
होमियोपैथीकी शक्तीकृत दवा ६ शक्तिके बाद ३०, २००, १०००, १०,०००, ५०,००० तथा १ लाख पावर (पोटेन्सी)-वाली होती है। इन उच्चतर शक्तीकृत दवाओं में दवा का नामोनिशान ही नहीं रहता, जबकि ये सूक्ष्मतम अदृश्य शक्तिरूपा होमियोपैथिक दवाइयाँ पुराने, जटिल तथा असाध्य कहे जानेवाले रोगों को जड़मूल से स्थायी रूप से नष्ट कर देनेका सामर्थ्य रखती हैं तथा उस रोगजन्य अन्तरङ्ग को Regenerate करने की क्षमता भी रखती हैं।
होमियोपैथिक दवाओं का परीक्षण (Proving of Drugs)
कौन-सी औषधि स्वस्थ व्यक्ति में क्या लक्षण पैदा करती है, डॉ० हैनीमैन ने ही इसका आविष्कार किया। होमियोपैथी की अधिकांश दवा का डॉ० हैनीमैन ने स्वयं तथा अपने कई स्वस्थ सहयोगियों पर परीक्षण किया — उनमें जो-जो शारीरिक तथा मानसिक लक्षण उत्पन्न हुए, उनका सम्पूर्ण रेकार्ड किया गया। इस प्रकार परीक्षित होमियोपैथिक शक्तीकृत दवाओं का जो सजीव चित्रण संकलित किया गया, उस ग्रन्थ का नाम होमियोपैथिक मैटेरिया-मेडिका रखा गया। चूँकि होमियोपैथिक दवाओं के परीक्षणका आधार स्वस्थ मानव-शरीर रहा है। अतः जब तक मानव पृथ्वीपर है, होमियोपैथी की वे ही दवाइयाँ सदियों तक चलती रहेंगी।
ऐलोपैथी दवा बार-बार इसलिये नयी-नयी बदलती रहती है कि उसके परीक्षण का आधार चूहे, बंदर, गिनीपीग-जैसे जानवर तथा रोगी होते हैं।
होमियोपैथी दवा के चयन का सिद्धान्त
सिद्धान्तरूप से होमियोपैथ का काम ऐसी औषधि का निर्वाचन करना है, जिसके लक्षण हूबहू रोगी के लक्षणों से मिलते हों। जब रोगी के लक्षणों और औषधि के लक्षणों में अधिक-से-अधिक साम्यता, समानता, एकरूपता पायी जाती है तो वही औषधि रोग को दूर करेगी। औषधि और रोगी का वैयक्तिकीकरण (Individuali-sation) करना होमियोपैथी का सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के आधारपर होमियोपैथ रोगी द्वारा बताये गये सम्पूर्ण लक्षणों को ध्यान में रखकर ही उपयुक्त औषधि एवं दवा की पोटेन्सी (पावर)-का चयन करता है। यह चयन-प्रक्रिया होमियोपैथ के अध्ययन और अनुभवपर आधारित रहती है।
होमियोपैथी चिकित्सा-प्रणाली के बारे में कुछ व्यावहारिक जानकारी
- होमियोपैथिक दवा की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती है। (यदि दवा को धूप, धूल, धुंआ, तेज गन्ध तथा केमिकल्स से बचाकर रखा जाय तो यह दवा कई वर्षों तक चलती रहेगी।)
- इस दवा के कोई साइड इफ़ेक्ट (दुष्प्रभाव) नहीं होते हैं।
- इस दवा में कोई विशेष परहेज नहीं होता है। केवल तेज गन्धवाली वस्तुओं से परहेज करना है।
- दवा को हाथ नहीं लगाना चाहिये, शीशी के ढक्कन से या सफेद कागज के टुकड़े पर लेकर सीधे मुँह में डालकर चूस लेना चाहिये। साधारणतः बड़ों को चार गोली तथा बच्चों को दो गोली।
- दवा लेने के १५-२० मिनिट पहले तथा दवा लेने के १५-२० मिनिट बाद तक मुँह में कुछ भी नहीं डालना चाहिये। भोजनमें ३०-३० मिनिट का पहले और । बाद में समय का ध्यान रखना है।
- चाय-काफी-तंबाकू-पान-प्याज-लहसुन-इनपर कोई बंदिश नहीं है, परंतु ध्यान रखें दवा लेने के आधा घंटा पहले तथा दवा लेने के आधा घंटा बाद तक इनका उपयोग नहीं करें, अन्यथा तेज गन्ध दवा के पावर को कम कर सकती है।
- किसी भी कारण से आवश्यकता पड़ने पर यदि कोई अन्य पद्धति की दवा का प्रयोग करना पड़े तो उस समय तक के लिये होमियोपैथिक दवा बंद कर देनी चाहिये। उसके बाद दूसरे दिन से पुनः यथावत् चालू कर सकते हैं।
- होमियोपैथी चिकित्सा-प्रणाली में रोगी के लक्षणों के आधार पर ही उपचार किया जाता है। लक्षणों द्वारा ही अङ्ग-विशेष के रोगग्रस्त होने की जानकारी हो जाती है। इसी कारण साधारणतः अकारण रोगी की भारी-भरकम खर्चीली जाँचें नहीं करायी जाती हैं। होमियोपैथिक चिकित्सा के पद्धति सरल है, सस्ती है और पुराने रोगों में स्थायी लाभ देनेका सामर्थ्य रखती है।
- होमियोपैथी चिकित्सा के बारे में आवश्यक जानकारी के अभाव में कुछ लोगों में भ्रम, भ्रान्तियाँ तथा गलत धारणाएँ फैली हुई हैं, जिसकी वजह से वे होमियोपैथी चिकित्सा कराने में हिचकिचाते हैं, उनके द्वारा अक्सर ऐसा कहा जाता है कि –
(अ) होमियोपैथी दवा देरसे असर करती है।
(ब) होमियोपैथी में पहले रोग को बढ़ाया जाता है।
(स) होमियोपैथिक दवा से तात्कालिक लाभ नहीं होता है तथा दवा काफी लंबे समय तक लेनी पड़ती है।
(द) होमियोपैथी दवा समय पर बार-बार दिन में कई बार लेनी पड़ती है।
(इ) कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इतने बड़े शरीरमें ४-५ साबूदाने-जैसी गोली क्या असर करेगी?
ऐसी कई भ्रान्तियों एवं गलत धारणाओं के कारण होमियोपैथी की सही जानकारी के अभाव में रोगी तात्कालिक एवं क्षणिक लाभ के लिये इधर-उधर भटकने के उपरान्त अन्त में स्थायी लाभ के लिये होमियोपैथी चिकित्सा के लिये आते हैं और जब वे इस संजीवनी चिकित्सा-विद्या से लाभान्वित होते हैं तो फिर इसे छोड़कर दूसरी चिकित्सा पद्धति नहीं अपनाते।
होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति और असाध्य रोग
चिकित्सा एक साधना है, सेवा-भाव से चिकित्सा करने पर पूर्ण रूप से सफलता मिलती है। प्रत्येक चिकित्सा-पद्धतियों का अपना अलग-अलग महत्त्व है। कुछ रोग जैसे डिप्थीरिया, टिटनेस, एड्स तथा कुष्ठरोग के लिये ऐलोपैथी को उत्कृष्ट समझा जाता है। वातरोग, पक्षाघात आदि में आयुर्वेद का महत्त्व है। इसी प्रकार जटिल एवं पुराने रोगों में होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति का महत्त्व ज्यादा लाभकारी सिद्ध हुआ है। सभी पैथियों में रोगी के प्रति सहानुभूति नितान्त आवश्यक है।
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि जीव को शिव समझकर चिकित्सा करना ही जीव का वास्तविक धर्म है। होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति की विशेषतापर मैं एक-दो उदाहरण आपके समक्ष रखना चाहता हूँ। होमियोपैथिक औषधि के चयन में रोगी के शारीरिक एवं मानसिक लक्षणों पर विचार किया जाता है, इसमें पुराने इतिहास का विशेष प्रयोजन होता है,
- अड़सठ वर्ष के एक रोगी को पूरी तरह से स्वर-भङ्ग हो गया था। जसलोक अस्पताल (मुम्बई) ने टंग-पैरालाइज्ड कहकर वापस भेज दिया था, उस रोगी के पुराने इतिहास से पता चला कि उक्त रोगी को चार वर्ष की उम्र में चेचक निकली थी जो कि उस समय उसके शरीर में पूर्ण-रूप से विकसित नहीं हुई थी, आज उसी के फलस्वरूप ऐसी स्थिति आयी है। होमियोपैथिक औषधि केवल दो खुराक देने से कुछ दिनों पश्चात् स्वर-भङ्ग ठीक हो गया और पुराना स्वर वापस आ गया।
- एक रोगी को अकेलेपन में गश (मूच्छ) आती थी, उसका इलाज भेल्लौर से कराने पर भी सफलता न मिलने पर रोगी को होमियोपैथिक इलाज के लिये सलाह दी गयी। पुराने इतिहास से पता चला कि उसका पालन-पोषण बड़े परिवार में-शोरगुल में हुआ था, परंतु विवाह के उपरान्त उसे अकेलेपन में रहना पड़ा; क्योंकि उसका पति अपने कार्य पर चला जाता था। उसीके परिणामस्वरूप उसके मन में भय से यह रोग उत्पन्न हो गया और वह बेहोशी में परिवर्तित हो गया। इसमें होमियोपैथिक इलाज से ही सफलता प्राप्त हुई।
- एक चौदह साल की लड़की को जुविनाइल डाइबिटिज था, काफी चिकित्सा कराने के पश्चात् वे लोग होमियोपैथी की शरण में आये। रोगी के इतिहास से ज्ञात हुआ कि जब वह माँ के गर्भ में थी, तब उसकी माँ का मानसिक संतुलन खराब था। फलस्वरूप पैदा होते ही बच्ची में इस रोग की उत्पत्ति हुई, अतः इसी आधार पर इस रोग की चिकित्सा करने पर रोग समाप्त हो गया।
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