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How to protect children teeth बच्चों के दाँतो की रक्षा कैसे करें ?
बालकों के दाँत निकलने के समय उनके नेत्र, सिर आदि सर्वाङ्ग में अत्यधिक पीड़ा होती है। वास्तव में देखा जाय तो दाँतों का निकलना शरीर का स्वाभाविक धर्म है। शिशुरूपी शरीर माता के स्तनपान से पुष्ट होता है, उस समय उसे कोई कड़ा पदार्थ चबाना नहीं पड़ता। केवल ओठ, जीभ और गालों की सहायता से चूसने की क्रिया करनी पड़ती है, उस अवस्था में दाँतों की उसे कोई आवश्यकता ही नहीं होती। किंतु ज्यों-ज्यों वह बढ़ता है, अपने जीवन निर्वाह के लिये उसे कड़े एवं पुष्टिकर पदार्थों को चबाकर खाने की आवश्यकता होती है।
इसी से उस समय वृद्धि के अनुसार शरीर में तमाम परिवर्तन होने लगता है। उसके जबड़े मजबूत, मुँह का फाँट बड़ा एवं मसूढ़े मोटे तथा सबल हो जाते हैं और धीरे धीरे सब पदार्थों को चबाने की उसमें शक्ति आ जाती है एवं वह स्वाभाविक ही इधर उधर हांथ पैर फैलाकर जो कुछ मिलता है, उसको मुख में डालकर चबाने की चेष्टा करता है। अत: जैसा कि हम उपर कह आये हैं। इस अवस्था में दाँतों का निकलना एक प्राकृतिक क्रिया है।
इसमें बालक को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये तथा देखा भी गया है कि जिस बालक के आहार आदि की व्यवस्था प्रारम्भ से ही सावधानी के साथ नियमपूर्वक की जाती है, उसे दन्तोद्गम के समय किसी प्रकारके विशेष पीड़ा या विकार से ग्रस्त नहीं होना पड़ता। खेद है कि आज भारतमें शिशु रक्षण के मामूली नियमों का भी पालन नहीं हो रहा है। हमारी माताओं और बहिनों में धातृ शिक्षा का अभाव होने से प्रायः ९० प्रतिशत बालकों को इस अवस्था में अनेक भयङ्कर कष्टों का सामना करना पड़ता है। शरीर का एक स्वाभाविक धर्म ‘दन्तोद्मरोग’ के नाम से प्रख्यात हो गया है।
किंतु सशक्त एवं स्वस्थ बच्चों को तथा जिन बच्चों की माताओं को दुग्ध सदृश पदार्थ, जिनमें चूना क्षार अधिक रहता है, खाने को मिलता है, उन्हें दाँत के निकलने के समय कोई विशेष कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जिन बच्चों की आहार प्रणाली एवं बाह्याभ्यन्तर शुद्धि की ओर सावधानी के साथ ध्यान नहीं दिया जाता, उनकी जठराग्नि दन्तोद्मकाल में विशेष मन्द पड़ जाने के कारण विकार पैदा कर देती है, जिससे उसमें नीचे के लक्षण प्रकट होने लगते हैं तथा यह कई रोगों का कारण हो जाता है।
पहली अवस्था
- मुख के अंदर की गरमी कम हो जाती है, लार अधिक बहती है, मुख से खट्टी गन्ध आती है, रात्रि में हलका ज्वर कभी कभी तीव्र ज्वर भी हो जाता है।
- नींद ठीक ठीक नहीं आती, बच्चा नींद में चौंकता, बार बार जाग उठता है।
- मसूढ़ों में दाहयुक्त शोथ और खुजली के कारण दूध पीते समय स्तनों को मसूढ़ों से दबाता है।
- प्रायः हरे, पीले, सफेद तथा फटे दस्त होते हैं। दस्त दिन रात में ८-१० बार या इससे भी ज्यादा होते हैं। कभी कभी उलटी भी होती है।
- सिर गरम रहता है।
- दाँत निकलने के कुछ सप्ताह पूर्व लार टपकने लगती है।
- आँखों में पीड़ा, पलकों में रोहे तथा नेत्रस्राव, कर्ण पीड़ा, त्वचा के विकार विसर्प आदि भी देखे जाते हैं।
- जुक़ाम होकर नाक बहने लगती है, छींक अधिक आती है और खाँसी भी हो जाती है।
दूसरी अवस्था
मुख और मसूढ़ों में दाह की अधिकता होती है तथा मसूढ़ों के ऊपर कुछ गुलाबी रंग का फूला हुआ-सा दाग दिखलायी देता है। उसे दबाने से बड़ी वेदना होती है। अतः बालक इस अवस्था में किसी वस्तु को मुख में नहीं डालता, किसी वस्तु का मुंह में स्पर्श होते ही वह रोने लगता है। बेचैनी होती है तथा बालक चुपचाप माता की गोद में पड़े रहना चाहता है, बीच बीच में दूध पीने की कोशिश करता है, किंतु पीड़ा के मारे पी नहीं पाता। दन्तोद्मसम्बन्धी उक्त लक्षणों को देखकर घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। कारण कि ये कष्टदायक लक्षण स्वाभाविक ही होते हैं। इनको रोकने के लिये अधिक तीव्र उपचार हानिप्रद होते हैं।
दाँतों के सम्पूर्णतया निकल आने पर ये कष्टदायक लक्षण स्वयमेव शान्त हो जाते हैं। परंतु दन्तोद्गम काल में बालक की दक्षतापूर्वक देख भाल की विशेष आवश्यकता होती है, क्योंकि इस अवस्था में बालक की शक्ति विशेष क्षीण होने से थोड़ी सी भी असावधानी अन्यान्य सांघातिक व्याधियों को उत्पन्न कर देती है। अतः इस अवस्था में दक्षता एवं पथ्यापथ्य को ध्यान में रखते हुए सौम्य उपचार करने से दाँत बहुत सुगमता से निकल आते हैं और बालकों को किसी प्रकार का कष्ट भी नहीं होने पाता।
दक्षता
इस हालत में माता का आहार विहार पथ्यपूर्वक होना आवश्यक है। जब तक बालक माता का दूध पीता हो, तब तक माता को चाहिये कि वह गेहूँ की रोटी, मँग की दाल तथा दूध आदि हलके, शीघ्र पचनेवाले पदार्थ खाये; गुड़, तेल, खटाई, मिर्च आदि गरम पदार्थोंसे तथा मैथुनसे परहेज रखे एवं बालक को नियम से दूध पिलाये। यदि बालक अन्नादि खाता हो तो उसे बहुत हलका एवं सुपाच्य आहार देना चाहिये, जो सहज ही पच जाय और दस्त साफ हो।
मुरमुरों की खीर, साबूदाना, अंगूर, अनार, सेब आदि फलों का रस देना ठीक है। यदि आम का मौसम हो तो पके मीठे आमों के रस में दूध मिलाकर देना लाभदायक है; किंतु अधिक मात्रा में नहीं, एक से तीन चम्मच – इस प्रकार दिन में तीन या चार बार दे सकते हैं। कोई भी आहार अधिक मात्रा में नहीं देना चाहिये। मिठाई आदि गरिष्ठ पदार्थ देना तो जहर (विष) देने के समान है।
कोई भी गरम दवा या गरमी पैदा करनेवाले पदार्थ बालक को खाने या पीने नहीं देने चाहिये। प्रायः दाँत के निकलने के समय बालकों को दूध भी नहीं पचता, वे उलटी कर दिया करते हैं। ऐसी हालत में दूध में किञ्चित् चुने का निर्मल पानी मिलाकर उसे थोड़ा थोड़ा पिलाना चाहिये। दाँत के निकलने के समय मसूढ़ों में एक प्रकार की सनसनाहट या खुजली सी पैदा होती है, जिसे मिटाने के लिये बालक मिट्टी, ढेला, कंकड़ आदि जो भी उसके हाथ लग जाता है, उसी को तुरंत मुख में डाल, मसूढ़ों से दबाकर चबाने लगता है। यदि बालक की यह आदत आरम्भ में ही न छुड़ा दी गयी तो आगे चलकर उसे पाण्डु आदि भयङ्कर रोगों का सामना करना पड़ेगा।
अतः दाँत निकलने के समय बच्चों को मिट्टी आदि खाने से बचाते रहना चाहिये। जो बालक प्रतिदिन कई घंटे तक बाहर की स्वच्छ वायु में रहता है या खुले हुए और स्वच्छ वायु के आने जाने वाले कमरे में रहता है। तथा जिसको मात्रा से अधिक भोजन नहीं कराया जाता, उस बालक को दाँत निकलते समय कोई कष्ट नहीं होता। शारीरिक अस्थियों की बनावट में चूना अत्यन्त आवश्यक पदार्थ है। चूने की कमी से दाँत एवं अन्यान्य शारीरिक हड्डियाँ परिपुष्ट नहीं हो पातीं। इसीलिये पाश्चात्त्य वैज्ञानिक बच्चों के दूधमें चूने का जल (Lime-Water) मिलाकर देनेकी योजना करते हैं।
बच्चों की पुष्टि के लिये जितने बालामृत आदि शरबत के रूप की दवाइयाँ बनायी जाती हैं, उनमें चूनाप्रधान द्रव्य अधिकांश में डाला जाता है। एक संतान के पश्चात् दूसरी संतान के मध्य में पाँच वर्ष का समय स्त्री को मिलना चाहिये, जिससे वह अपने शरीर में चूने की कमी को पूरा कर सके। जिन स्त्रियों को बहुत शीघ्र-शीघ्र संतानें होती हैं, उनके रक्त और अस्थियों में चूने की मात्रा कम हो जाने से, उनका शरीर निर्बल हो जाता है, अस्थियाँ कमजोर हो जाती हैं और सूतिकादि विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
मुक्ता, मुक्ताशुक्ति, शुक्ति, शङ्ख, कपर्दिक, गोदन्ती, प्रवाल, संगयहूद, जवाहरमोहरा, अकीक आदि सब भस्मों में तथा संतरा, नीबू, सेब, अनार, नाशपाती आदि फलों में चूने की ही मात्रा अधिक होती है। गर्भावस्था में उपर्युक्त द्रव्यों का यथाविधि सेवन करते रहने से शरीर में चूने की मात्रा बढ़ जाती है।
मनुष्य से तो मुर्गियाँ ही बुद्धिमान् हैं जो अंडे देनेसे पूर्व चूना खाकर अपने शरीर में चूने का संचय कर लेती हैं। दाँतों का सुगमता से निकलना बच्चों के आमाशय और स्वास्थ पर भी आश्रित है। चुने के जल से बच्चों का हाजमा अच्छा रहता है। जिगर ठीक काम करता है और रक्त में शुद्धि होती रहती है। इसलिये भी चूना बच्चों के दन्तोद्गम में सहायक है।इसलिये भी चूना बच्चों के दाँत के निकलने में सहायक है।
उपचार विधि
- उत्तम पत्थर का बिना बुझा हुआ असली चूना पाँच तोले नवीन मिट्टी के पात्र में तीन पाव जल में रात्रि के समय भिगो दे। प्रात:काल ऊपर का साफ निथरा हुआ । स्वच्छ जल मोटे वस्त्र से छान ले। इसी जल में एक सेर चीनी डालकर एक तार की चाशनी बना ले, फिर ठंडा होने पर छानकर शीशी में भर ले। यह उत्तम बालामृत शरबत तैयार हो गया। मात्रा १० बूँद से ३० बूँद तक प्रातः सायं चटावे। दाँत निकलने के समय के सारे कष्ट दस्त, वमन, पेट फूलना, दूध का न पचना, खाँसी, कफ, बुखार आदि इससे दूर हो जाते हैं।
- अतीस, काकड़ासिंगी, पीपल – इनका महीन चूर्ण करके शहद के साथ चटाने से लाभ होता है।
- बिना बुझा हुआ चूना एक तोला और जल एक सेर एकत्र मिलाकर नीले रंग की शीशी में भर काग बंद करके बारह घंटे बाद एक बार हिलाकर जब पानी निथर आये, तब सावधानीपूर्वक उस जल को मोटे वस्त्र से छान ले और यह निर्मल स्वच्छ जल दूसरी नीली शीशी में भरकर रखे। मात्रा – १० से १५ बूँद तक।
- दन्तोद्भेद – गदान्तक रस एक रत्ती जल में घिसकर देने से दन्तोद्मजन्य सब बीमारियाँ – ज्वर, अतिसार आक्षेप आदि दूर हो जाते हैं।
दन्तोद्मजन्य प्रमुख व्याधियाँ एवं उपचार
वमन
- सुहागे की खील एक से चार रत्ती, माता के दूध में मिलाकर दे।
- अर्क पोदीना, अर्क सौंफ और अर्क इलायची समभाग मिलाकर एक से दस बूँद तक दूध में मिलाकर पिलाना चाहिये।
- प्रवाल और वंशलोचन को शहद या दूध के साथ देना चाहिये।
ज्वर
- अतिविष, काकड़ासिंगी, नागरमोथा समभाग महीन चूर्ण पीसकर एक से तीन रत्ती तक की मात्रा में शहद या माता के दूध के साथ दिन में तीन बार दे, इससे वमन में भी लाभ होता है।
- सुदर्शन घनवटी माता के दूध में किञ्चित् घिसकर दिन में तीन बार दे।
अतिसार
- जायफल, अतीस, अनार का छिलका, काकड़ासिंगी और जवाहर मोहरा समभाग महीन चूर्ण कर एक रत्ती से दो रत्ती तक शहद या दूध के साथ तीन बार दे।
- धायपुष्प, बेलगिरी, धनिया, लोध, इन्द्रजव और बाला समभाग महीन चूर्ण कर दोसे चार रत्ती तक तुलसी रस के साथ दे।
- तुलसी पत्र का चूर्ण दो या तीन रत्ती अनार के शरबत के साथ दे।
- महागन्धक रस भी परम लाभदायक है।
कोष्ठबद्धता
- शुद्ध रेंड्री का तेल डेढ़ माशा से तीन माशे तक चटावे।
आध्मान
- शंखवटी मूँग के बराबर मातृदुग्ध के साथ दे। पेट पर रेंड़ी का पत्ता रेंड़ी का तेल गरमा कर चुपड़े और उस पर रुई गरम कर रखे तथा कपड़ा बाँध दे।
कास-श्वास
- मुलेठी का सत, छोटी हरड़ और सेंधा नमक समभाग घोटकर मटर जैसी गोलियाँ बना दिन में तीन बार मातृदुग्ध या जल में घोलकर पिलाये।
- मुलेठी का सत, अतीस, काकड़ासिंगी, नागरमोथा, पीपल — इनका समभाग चूर्ण कर ले; मात्रा — एक रत्ती के प्रमाण में शहद के साथ दे।
- चतुर्भद्रिका चूर्ण शहद के साथ दे।
सिर-दर्द
- सोंठ, कपूर घृत में घोटकर धीरे-धीरे सिर पर मलना चाहिये।
नेत्र-कष्ट
- गवती चाय की पत्ती छः रत्ती एक छटाँक गरम पानी में डालकर रख दे। जब पानी में रंग उतर आये तब छान ले। उसमें फिटकरी का फूला दो रत्ती मिलाकर रख दे। यह उत्तम नेत्रबिन्दु है। इसकी एक – एक बूँद डाली जाय।
पथ्यापथ्य
दन्तोद्गम के समय बालक को कोई भी खट्टी या मीठी चीज खाने के लिये न दी जाय। मुरमुरों की खीर, साबूदाना, गेहूँ की रोटी का फूला हुआ भाग दुग्ध के साथ उसे देना चाहिये। गरमी के दिनों में बालक का सिर शीतल जल से कई बार धो दिया जाय तथा उसके सिर पर बादाम का या तिल्ली का तेल लगाया जाय और कानों में बादाम का तेल छोड़ते रहना चाहिये। माताको चाहिये कि यदि बालक उसका दूध पीता हो तो वह संयम से रहे तथा मिर्च, गुड़, तेल, खटाई, गरम पदार्थ एवं मैथुनसे दूर रहे।
चूने की कमी को पूरा करने के लिये मुक्ता का प्रयोग
बच्चे को एक – दो रत्ती मुक्तापिष्टि नित्य दी जा सके, जब वह घुटनों से सरकने या बैठने लगे, तो बहुत उत्तम है। एक वर्ष को अवस्था तक इसे देने से बच्चे का शरीर पुष्ट बनेगा। दाँत निकलने के उपद्रव भी उसे तंग नहीं करेंगे, क्योंकि इससे चूने की कमी दूर हो जायगी। मुक्तापिष्टि न दी जा सके तो मोती के सीप का भस्म एक से दो माशे तक नित्य शहद या माता के दूध के साथ दिया जा सकता है; किंतु बच्चे को साधारण सीप का भस्म नहीं देना चाहिये।
बच्चे को तीन माशा वंशलोचन का कपड़छान किया हुआ चूर्ण प्रातः और सायंकाल दूध या शहद से दे दिया जाय तो भी उसके शरीर में चूने का अभाव पूरा हो जायगा। वंशलोचन उसे कोई हानि नहीं पहुँचायेगा; परंतु उसके चूर्ण में कण न रह जायँ, चूर्ण खूब बारीक हो, यह सावधानी रखनी चाहिये।
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